सोने का जूगनू (दास्ताॅ -ए-दिसंबर) कविता उस दिसम्बर को कैसे भूल जाऊँ जिसने मुझे सोने का जूगनू बनाया था । धीरे धीरे बढ़ी दिल लगी जो एक एहसास अनमोल दे दिया था । मुरझाई सी कली को पानी कि बुंद खिला कर सुन्दर फुल बना दिया था । उस सुनहरे पलो को कैसे भूल जाऊँ जिस पल ने मुझे जिंदा किया था । देखा न जिसको कभी मैंने विश्वास बहुत ही करने लगा था । मेरे काम को सफल करने के लिए मंदिर मे पूजा करना रोजाना था । खुली छूल्फो को दिखना और आँखों मे काजल लगाना था । उस आवाज को कैसे भूल जाऊँ जिसने जिने कि हिम्मत दिया था । उस चेहरे को कैसे भूल जाऊँ जिसे अपना आईना बनाना था । लफ्जो को चुरा कर हमेशा गुलाबों सी होठों पर सजाना था । सात जन्म साथ रहने का वादा उसे एक पल में भूल जाना था । शायद यही रब की मर्जी है प्यार करके प्यार को याद करना था ।
क्योंकि सच एक मुद्दा हैं