#तुम्हे_दो_रोटी_खिलाकर तुम्हे दो रोटी खिलाकर तुमसे बहुत कुछ ले गए हम. तुम्हारा झोपड़ा झोपड़ा ही रहा महलों के हो गए हम. नीयत साफ़ थी बरकत ने किवाड़ खटखटाये झुर्रीदार हांथों ने रखा सिर पर हाथ, तो नन्ही मुस्कानों ने मेरे दिल के बाग़ सजाये. न मालूम कब दे देते हो अक्सर... हमने दुआओं का असर देखा है, वेश बदल बदल आती और सताती ज़िन्दगी का सफ़र देखा है. जाने कब समझोगे? तुम अपनी कमज़ोरियों पर खड़े महलों के राज को. तुम्हे बोलना नहीं आता तुम्हारे उत्थान की बात करने वाले, तुम पर राज करने वाले ही चुराते है तुम्हारी कमी, तुम्हारे दर्द और तुम्हारी आवाज़ को. रही होगी ज़रूर किसी ख़ुशी की तलाश अरसा पहले बढ़ चले कदम तुम्हारी ओर. बड़ी बड़ी महफ़िलों की शान देखी नही भाया उनका शोर. देखे तमाम दोहरे रंग. खुद को उनके नाकाबिल पाया नहीं सुहाए मुझे, कुछ ढंग. करना दुआ खुदा से 'धरम' के करम को वो इतना नवाज़ दें तुम्हे केवल पलते नही संवरते भी देख सकें हम तमाम दिलों को सेवा और समर्पण का वो, साज दें. आत्मकथ्य: एक सत्य जो कौंधा मन में हिलोर मेरे मन की : धर्मेन्द्र Jgd जयहिन्द सत्यमेव जयते 7860501111 Dharmendra KR Singh SAHWES Sowi
क्योंकि सच एक मुद्दा हैं