घंटो बैठे , निहारते रहता हूँ। समाज से समाज को, पुकारते रहता हूँ। अपने संसार का , वह सामाजिक ताना-बाना। सभी क्यों गाने लगे है , क्रूर कट्टरता का गाना। कहाँ गई ईद की , वह सेवई की मिठास। अब होली के पुए में भी , आने लगी है खटास। अब कहाँ कोई हिन्दू , मस्जिद के बहार नजर आता हैं। इस कदर उसे , संदेह से देखा जाता हैं। घर वापसी की ख़बर सुनकर , कमला बेगम सिहर सी जाती है। जबरन मजहबीकरण की , उसकी अतीत ताजी हो जाती है। अब बंटवारा होगा लहू का , भाईचारे का भी हरण होगा। मिटटी, पानी और हवा का , मज़हबीकरण होगा। धन्यवाद कवि:-नकुल कुमार मोतिहारी, पूर्वी चम्पारण बिहार Mb. 08083686563
क्योंकि सच एक मुद्दा हैं