घंटो बैठे ,
निहारते रहता हूँ।
समाज से समाज को,
पुकारते रहता हूँ।
अपने संसार का ,
वह सामाजिक ताना-बाना।
सभी क्यों गाने लगे है , क्रूर
कट्टरता का गाना।
कहाँ गई ईद की ,
वह सेवई की मिठास।
अब होली के पुए में भी ,
आने लगी है खटास।
अब कहाँ कोई हिन्दू ,
मस्जिद के बहार नजर आता हैं।
इस कदर उसे ,
संदेह से देखा जाता हैं।
घर वापसी की ख़बर सुनकर ,
कमला बेगम सिहर सी जाती है।
जबरन मजहबीकरण की ,
उसकी अतीत ताजी हो जाती है।
अब बंटवारा होगा लहू का ,
भाईचारे का भी हरण होगा।
मिटटी, पानी और हवा का ,
मज़हबीकरण होगा।
धन्यवाद
कवि:-नकुल कुमार
मोतिहारी, पूर्वी चम्पारण बिहार
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