-: प्रारब्ध:--
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प्रारब्ध ऎसा होता,
सोचा ही नही है।
पुरुषार्थ के निलय में,
धोखा भी कहीं है।।
1
कुसुमित बिषय का चिंतन,
जब डोलने लगा,
दिन-रात चर्चा करके,
रस घोलने लगा,
आई समझ में उसकी,
रणनीति मान्यवर,
बसता वो जगत में,
हर प्रानी के जिगर,
बिधि से बिधान का,
परिचय ही नही है--प्रारब्ध-
2
जब जब प्रकाश रति का,
आँगन में हुआ है,
शालीनता का उसने,
दोहन ही किया है,
भावों से जुड़ी निष्ठा,
नित योजना बताती,
आरूढ़ता मचलती ,
ऑचल नही हटाती,
लेकिन सुधार उसका ,
संभव ही नही है--प्रारब्ध-
3
चूंकि प्रमाण रितु का,
सम्मान भरा है,
उद् गम प्रवाह मौलिक ,
आशव से हरा है,
सम्भावना अलौकिक,
साये में सुखद दिखती,
उसकी सुगन्ध गरिमा,
उपवन से जुड़ी रहती,
व्याकुल मनोदशा का,
मतलब ही नही है -प्रारब्ध-
4
ममता भरी दिलासा,
जब मर्म को हटाती,
ज्योतिर्मयी प्रतिष्ठा,
आगोश में विठाती,
तब धर्म आगे बढ़ता,
विश्वास के लिये,
उल्लास प्रौढ़ होता,
प्रतिमान के हिये,
पर कामना कमाई ,
संयत ही नही है--प्रारब्ध-
5
फिर याद आई भौतिक,
आधार की रिचा,
जिसके लिये सनेही,
हर ओर से खिंचा,
कहता रहा "भ्रमर"अब,
सम्वेदना समेटो,
मेरे विचार को तुम,
अन्तरमुखी हो देखो,
कौतुक कला से कल का,
निश्चय ही नही है--
प्रभु के अलावा कोई,
संबल भी नही है--प्रारब्ध--
पुरुषार्थ के निलय में,
धोखा भी कहीं है।।
'भ्रमर' रायबरेली 18 जुलाई18
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