:कवि पथ की अनुभूति:-
जबसे मिला रास्ता मनको ,
भाव भँगिमा भारी जी।
ले विशाल भवतारक किरणें,
तृष्णा बढी़ हमारी जी।।
1
दिखी व्यवस्था हर कवियों की,
निष्ठा से कविता रचते हैं,
अनुबन्धों से तोड़ के नाता,
सविता को ढूंढा करते हैं,
बडी़ कठिन है डगर पिया की,
ऐसा कुछ दर्शाते हैं,
फँस जाते जो मोहक बन में,
निकल नही वे पाते हैं,
छाया में माया औ ममता
ललिता करें सवारी जी -जबसे--
2
कैसे जाऊँ उस पनघट पे,
जहां पे कविता रहती है,
स्वर संगम की साध्य साधना,
अविरल धारा बहती है,
इसी लिए तन मर्दन करके,
चिंतन का धन ढूँढ रहा,
जो भी आया प्रान दुआरे,
उसी से फऩ को पूँछ रहा,
गोप-गोपियां ताल लगावैं,
नाचैं छैल बिहारी जी --जबसे -
3
जब बिकास के खुले रास्ते,
सुखद धाम पे जाना सीखा,
सपनों के उस सौदागर से,
अभिमत को बतलाना सीखा,
सगुण साधना हुयी सार्थक,
भाव नहीं प्रतिबंधित है,
धर्म परायण इन सॉसों में,
कुछ पीडा़ नैसर्गिक है,
सूर-कबीर औ मीरा-तुलसी,
भूल गये संसारी जी--जबसे--
4
जग में जीवन देने वाला,
नित्य सुधा पिलवाता है,
उसके इसअनुराग राग को,
'भ्रमर'समझ नहिं पाता है,
कैसे हो उद्देश्य पूर्ती,
सम्बन्धों में पारा है,
यौवन को संदेह भरम से ,
मिलता ना छुटकारा है,
काशी-मथुरा लोभी हो गयी,
लिये आरती थारी जी --जबसे
चाह कठिन औ राह पथरीली,
कैसे सत्य निखारी जी--जबसे-
ले विशाल भवतारक किरणें,
तृष्णा बढी़ हमारी जी।।
'भ्रमर' रायबरेली 15 जुलाई 18
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