नेपाल। नेपाल के बारा जिला स्थित गढ़ीमाई धाम पूरे विश्व में पशु बलि के लिए प्रसिद्ध है. प्रत्येक पांच साल पर लगने वाले इस स्थानीय ग्रामीण मेला को देखना, इसके आध्यात्मिक पहलू, धार्मिक श्रद्धा, स्थानीय विधि व्यवहार आदि को निकट से जानना, समझना, महसूस करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.
मेला में शामिल होना अपने आप में बहुत बड़ा सौभाग्य का विषय है क्योंकि इस मंदिर के लगभग 10 किलोमीटर रेडियस में हर जगह आपको एक जैसे ही स्थिति दिखेगी. आप कुछ देर के लिए यह समझ नहीं पाएंगे कि आप मंदिर की किस दिशा में है और आपको किस दिशा में जाना है.
हरगांव हर मोहल्ले में एक बड़ा भारी हुजूम चलता हुआ दिखेगा. जिससे 4-5 किलोमीटर पहले से ही आपको आभास होगा कि मंदिर अगल-बगल में ही है लेकिन ऐसा नहीं है. क्या आभास मिर्ग-मरीचिका की तरह है.
स्थानीय लोगों की माने तो गढ़ीमाई से मांगे गए मनोकामना के पूरी होने के बाद लोग कबूतर गौ माता के प्रांगण में उड़ाते हैं, बकरा अथवा भैंस की बलि चढ़ाते हैं और खून माता को समर्पित करते हैं.
यहां चारों तरफ बकरे की बली (झटका) देते हुए लोग दिखाई देते हैं. बली के बाद जब बकरे का सर उसके तन से जुदा हो जाता है तो बकरे के मुंह पर जल समर्पित करके पूजन किया जाता हैं.
फिर वहीं पर उसके मांस को पकाया जाता है और प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है. इसके लिए ग्रामीण अपने साथ चूल्हा बर्तन तेल मसाला आदि ले जाते हैं. वही इस मांस को किसी भी तरह के नशीले पर पदार्थ के साथ लेना प्रतिबंधित रहता है. मान्यता है कि यदि कोई भी व्यक्ति इस प्रसाद को किसी भी नशीले पदार्थ के साथ यदि सेवन करता है तो उसे माता के गुस्से का शिकार (कोप भाजक) बनना पड़ता है.
बलि एक विशेष प्रकार के नेपाली हथियार (खुखरी या कटारी) से दिया जाता है. बताया जाता है कि इस हथियार का उपयोग पहाड़ी लोगों, खासतौर से गोरखा लोगों द्वारा बड़े स्तर पर किया जाता है. भारत चीन युद्ध में इसी हथियार से भारत के गोरख जवानों ने सैकड़ो चीनी सैनिकों का गर्दन काटा था.
खुखरी से बली चढ़ने वाले ज्यादातर मधेश अथवा पहाड़ी होते हैं.वे एक झटके में ही बलि का कार्य संपूर्ण करते हैं. ये लोग बलि के बदले एक भी रुपया नहीं लेते हैं बल्कि बकरे का सिर (मुंड या मूड़ा) लेते हैं. जिसे वे ग्रामीण तरीके से बनाकर प्रसाद स्वरूप बड़ी चाव से खाते हैं.
यह पूरी तरह से विशुद्ध ग्रामीण मिला है. इसमें पूजन के लिए किसी भी प्रकार के पंडित अथवा पुरोहित की आवश्यकता नहीं पड़ती है बल्कि लोग हर तरह की पूजन विधि अपने पूर्वजों से प्राप्त शिक्षा-संस्कार, अनुभव के आधार पर करते हैं.
मंदिर के मुख्य प्रांगण में माता का एक मंदिर है जी मंदिर के बीचों-बीच एक त्रिशूल लगा हुआ है. मान्यता है कि यही गढ़ीमाई का स्थान है. हालांकि मेले में भीड़ इतनी ज्यादा होती है कि यहां तक पहुंचना सबके लिए संभव नहीं है. यदि दर्शन भी हो जाए तो लोग खुद को बड़भागी समझते हैं.
यहां रहने के लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं है. चुकि यह ग्रामीण सभ्यता व संस्कृति से जुड़ा हुआ, एक परंपरा के रूप में वर्षों से चला आ रहा, विशुद्ध ग्रामीण मेला है इसलिए स्थानीय स्तर पर ग्रामीणों द्वारा ही विधि व्यवस्था किया जाता है.
लोग अपने घर के दरवाजे पर आपको ठहरने की एक सीमित इजाजत दे देते हैं. बड़ी संख्या में लोग खेतों में अपना टेंट बनाकर रहते हैं. हालांकि ग्रामीण जगह-जगह बड़े स्तर पर अपने खेतों में पुआल (धान की फसल का अवशेष) छोड़ देते हैं जिससे की आगंतुकों को को ठहरने, आग जलाकर तापने अथवा प्रसाद बनाने में सहायता प्राप्त होती है.
यहां शौच जाने के लिए भी विशेष व्यवस्था नहीं है. कहीं दूर दराज पर शहर के नजदीक एक सुलभ शौचालय मिल जाएगा नहीं तो अधिकांश लोग लोटा अथवा डिब्बे में पानी लेकर खुले में ही शौच के लिए जाते हैं. क्योंकि बड़ी जनसंख्या पहुंचती है इसलिए कहीं-कहीं स्थिति नारकीय हो जाती है.
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