चम्पारण के भूतपूर्व सैनिक ने पपीता की खेती में बुलंदी का झंडा गाड़ा.
पूर्वी चम्पारण। पूर्वी चंपारण के पीपराकोठी प्रखंड अंतर्गत सूर्यपुर पंचायत के पडौलिया गांव के रहने वाले भारतीय सेना से रिटायर्ड फौजी सह युवा किसान राजेश कुमार परंपरागत खेती से इतर पपीता की खेती कर रहें है. इस खेती के लिए उन्होंने अपने खून पसीने से भूमि को इस तरह से सिंचित किया है कि पपीता का बंपर उत्पादन हो रहा है. आज स्थिति यह है कि नौकरी के पीछे भागने वाले युवा भी किसान राजेश कुमार से मिलकर पपीता की खेती के गुर सीख रहें है.
सेना से रिटायर्ड होने के बाद, खेती-बाड़ी का निर्णय
किसान राजेश कुमार बताते हैं कि शुरू से ही खेती-बाड़ी में उनकी रूचि रही है. भारतीय सेना से रिटायरमेंट के बाद उन्होंने खेती-बाड़ी करने का फैसला लेकर सबको चौंका दिया. उसमें भी परंपरागत खेती से इतर पपीता की खेती का फैसला लेना इतना आसान नहीं था. बावजूद इसके उन्होंने पपीता की खेती की और पूर्वी चंपारण में अपनी सफलता का झंडा गाड़ दिया.
जिला उद्यान, कृषि विज्ञान केन्द्र से मिली सहायता
किसान राजेश कुमार कहते हैं कि पपीता की खेती के लिए जिला उद्यान विभाग (DHO) द्वारा छः रूपया प्रति पौधा की दर से "रेड लेडी ताइवान 786" किस्म के पपीते का पौधा प्राप्त हुआ. वहीं उद्यान विभाग द्वारा ही ड्रिप इरीगेशन भी उपलब्ध कराया गया. इसमें टेक्निकल सपोर्ट कृषि विज्ञान केंद्र पिपरा कोठी द्वारा उपलब्ध कराया गया वहीं कृषि विज्ञान केंद्र, पीपरा कोठी के वरीय वैज्ञानिक डॉ. अरविंद कुमार सिंह एवं कृषि विज्ञान केंद्र के ही अन्य कृषि वैज्ञानिकों द्वारा समय-समय पर प्लॉट विजिट करके समय-समय पर मार्गदर्शन मिलता रहा है.
एक एकड़ में 900 पपीते का पौधा लगाया.
राजेश कुमार बताते हैं कि वो विगत छः वर्षों से पपीता की खेती कर रहे हैं. पपीता की खेती के लिए तीन सीजन होते हैं. जिसमें से उन्होंने फरवरी -मार्च का सीजन को चुना. उन्होंने एक एकड़ में पपीता की खेती की है. इसके लिए फरवरी के महीने में ही प्लॉट को तैयार करके लगभग 900 पपीता के पौधा को लगाया. पौधा लगाने के तीसरे-चौथे महीने में पौधे में कली खिलने लगा एवं छठे-सातवें महीने से उत्पादन शुरू हो गया.
कुल लागत एवं मुनाफा
किसान बताते हैं कि पपीते की खेती काफी कम लागत में की जा सकती है. जहां तक लागत की बात कर तो खेत की तैयारी करने से लेकर पौधारोपण, खाद, उर्वरक, कंपोस्ट, जुताई आदि से लेकर उत्पादन होने तक कुल खर्च लगभग 50 हजार का आता है.
मौसम की मार, कीट, वायरस से बचाव
भूतपूर्व सैनिक बताते हैं कि पपीते की खेती करते समय काफी धैर्य का परिचय देना होता है वही फसल पर वाइट फ्लाई कीट, वायरस अटैक एवं बरसात एवं सर्दी से बचाव का भी लगातार ख्याल रखना होता है. इसके लिए लगातार देखभाल की जरूरत होती है. वही आवश्यकता अनुसार संरक्षण उपचार करना होता है. बरसात के दिनों में देखना जरूरी होता है कि खेत में पानी न लगने पाए तो वहीं दूसरी ओर ठंड के दिनों में ठंड से बचाव के लिए ठंड की दवा का छिड़काव किया जाता है.
पपीता का वजन, खेत रेट, मार्केट रेट एवं मुनाफा
पपीते की खेती पर आप जितना अधिक ध्यान देंगे फसल का उत्पादन उतना ही अच्छा होगा. एक एकड़ पपीते की खेती से लगभग 10 लाख का आमदनी किया जा सकता है. जहां तक मार्केट रेट की बात करें तो किसान बताते हैं कि पपीते का वजन दो किलो से चार किलो तक होता है. व्यापारी उनके खेत से ही ₹30 से लेकर ₹50 की रेट तक ले जाते हैं. रमजान एवं त्योहार के सीजन में अच्छा बिक्री प्राप्त होता है.
इनके पपीते की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि पपीता को किसी भी केमिकल द्वारा नहीं पकाते हैं बल्कि पपीता के पौधे में ही पपीता पकने के बाद ही उसका हार्वेस्टिंग करते हैं. प्राकृतिक ढंग से पके पपीता में मार्केट में उपलब्ध अन्य पपीता की तुलना में स्वाद अलग होने के कारण इसका डिमांड ज्यादा रहता है.
इंटर क्रापिंग से भी लाभ
किसान बताते हैं कि पपीते का पौधा लगाने के बाद आप इसके साथ सह खेती के रूप में अदरक, बकला एवं गेंदा फूल की भी खेती कर सकते हैं. और पपीते का उत्पादन होने तक आप इससे अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं.
पपीता का स्वाद एवं स्टोरेज क्षमता
किसान बताते हैं कि पपीता का स्वाद काफी अच्छा है. वहीं एक बार पपीता पककर तैयार हो जाने एवं हार्वेस्टिंग होने के बाद इसको 10 दिनों तक स्टोरेज कर सकते हैं. स्वाद एवं स्टोरेज क्षमता के कारण ही दूर-दराज के व्यापारी इस किस्म के पपीता को खरीदना एवं बेचना पसंद करते हैं.
पपीता के खेती के लिए युवाओं को प्रेरित कर रहें हैं
किसान राजेश कुमार बताते हैं कि पिछले छः साल में पपीता की खेती से प्राप्त अनुभव के आधार पर पपीता का प्लांट अपनी नर्सरी में तैयार कर रहे हैं एवं इच्छुक किसानों एवं युवाओं को इस खेती से सीख लेकर पपीता की खेती करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं. इसको लेकर वह उनके बीच अपने अनुभव को भी साझा करते हैं. किसान बताते हैं कि एग्रीकल्चर में आधुनिक वैज्ञानिक सोच के समावेशन होने के कारण अब युवा खेती किसानी से जुड़कर भी आत्मनिर्भर हो सकते हैं.
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