जो लोग आध्यात्मिक चिंतन से विमुख होकर केवल लोकोपकारी कार्य में लगे रहते हैं वह अपनी ही सफलता पर अथवा सद्गुणों पर मोहित हो जाते हैं, वह अपने आप को लोक सेवक के रूप में देखने लगते हैं। ऐसी अवस्था में वह आशा करते हैं कि सब लोग उनके कार्यों की प्रशंसा करें उनका कहां माने। उनका बढ़ा हुआ अभिमान उन्हें अनेक लोगों का शत्रु बना देता है, इससे उनकी लोकसेवा उन्हें वास्तविक लोकसेवक न बनाकर लोक विनाश का रूप धारण कर लेती है और अनेक लोगों का शत्रु बना देता है।
आध्यात्मिक चिंतन के बिना मनुष्य में विनीत भाव नहीं आता और ना ही उसमें अपने आप को सुधारने की छमता रह जाती है। वह भूलो पर भूल करता चला जाता है और इस प्रकार अपने जीवन को विकल बना देता है।
*पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य।*
Comments