--:ब्रह्मान्ड दर्शन:--
सम् भावों को देने वाला,
एक छत्र (आकाश) है।
त्याग मूरती (धरती) माता,
पूरन करती आस है।।
1
यदि नव मन की अंत:किरणें,
यज्ञवेदि दिग्पाल दे,
प्रश्न नही है कोई आकर,
भौतिकता को चाल दे,
(पवन) सृष्टि रंग भरने वाला,
आत्म ज्योति उल्लास है-----
2
कारण जाकर तुम खुद पूछो ,
पुलकित सृजन सहेली से,
शशि ग्रहअगनित नमन सितारे,
खोई हुयी पहेली से,
रसमय सुन्दर शोणित यौवन,
(अग्नि)मयी विश्वास है-----
3
जी की तृष्णा अश्रु भिगोई,
जगह जगह पर दिखती है,
शुचिता उसकी कलुषित एैसी ,
विन व्याहे ही फलती है,
कान्त ऐंठ औ कामिन कौशल,
नहीं (जल)धि के पास है-----
4
क्यूँ ना नित आनन्द उठायें,
गंगा -जमुना नीर से,
लक्ष वीथिका पोषित करके ,
भौतिक-भूत शरीर से,
शरन'भ्रमर'उस व्योमपाद के,
जो रचता अनुप्रास है-----
सम् भावों को देने वाला,
एक छत्र आकाश है।
त्याग मूरती धरती माता,
पूरन करती आस है।।
ईश्वरी कृपा का आनन्द लूटें?
रचयिता प्रेषक:--
विजय नारायणअग्रवाल'भ्रमर'
रायबरेली 14 जुलाई 18
Comments