--:पिपासा:--
ममता मयी पिपासा,
आशा के गीत गाये।
कोई दयालु बनकर,
होंठों पे मुस्कुराये।।
असमय उदित हृदय में,
एैसी सुभाष माला,
जिसने सरूप मेरे ,
जीवन का बदल डाला,
सुषमा बढी़ धरम की,
आनन्द देने वाली,
जैेसे छितिज पे शोभित,
अरुणोदया की लाली,
संभव अलाप मेरा,
गतिरोध हटा पाये---ममता
शालीनता का मंदिर ,
देखा तो याद आया,
सन्तोष वहॉं बैठा,
प्रतिरोध का सताया,
कौतुक प्रवाह बल का,
रोके से नही रुकता,
कैसे सम्हालूँ आके,
मतभेद से सगुणता,
यौवन की रूप रेखा,
हर आस्था डिगाये----ममता
मन पे प्रभाव इसका,
विपरीत पड़ा है,
बातों का चतुरा राही ,
सौदे पे अड़ा है,
संगी नही गुणों का ,
जो मोह से उबारे,
बल खाती प्राण उष्मा,
स्नेह से संवारे,
मानव की बोध शक्ती,
दानव से दिल मिलाये--ममता
जितनी रही विपनता,
उतनी तो हुयी पूरी,
लेकिन कला समय की,
देखी गयी अधूरी,
धन की नवीन स्थित ,
समझाय नही पाती,
पुरुषार्थ से विभव का,
गुण गाय नही पाती,
चिन्तन की रूप माला,
अवसाद में डुबाये---ममता
समझा जिन्हें अलौकिक,
वे भी मदान्ध निकले,
करुणा व्यथा को सुनकर,
सद्भावना पे फिसले,
जीवात्मा के खातिर,
शोधा "भ्रमर" ने सपना,
कोई ना प्यार देता,
दर बैठने को अपना,
दारुण दुखों से कोई,
कैसे न भरम खाये---ममता
बोझिल बनी अवस्था,
वैसे भी चरमराये---ममता
नोट:--स्थिति-परिस्थित की
सत्य अनुभूति
रचयिता प्रेषक :---
विजय नारायण अग्रवाल 'भ्रमर'
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