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चार भाग में पुन: प्रस्तुत है
खन्ड -1
पंडित से मिले नाई,
ले वासना रजाई,
जजमान यदि सुघर हो,
काहे न हो कमाई,
पुरुषार्थ मन का अंधा ,
ये सोंच रहा था,
इतने में तृष्ना बोली,
दो काम की दुहाई,
दो काम की दुहाई,
हो मान औ बढ़ाई,
दरपन ने कहा अच्छा,
ये बात पसंद आई,
जो काम करके तनका,
उपयोग करता है,
औरों के दुख हरके,
सहयोग करता है,
हम उसके लिये जीवन,
अनुदान देते हैं,
पीड़ित ब्यथा को सुनके,
सत् ज्ञान देते है,
विश्वास करो मेरा,
डरना न मेरे भाई,
फिर रूप नया धरके,
पंडित से मिले नाई।
खन्ड २--
आशा की किरन फूटी,
फिर से बहार आई,
बिन साज बाज घर में,
किलकारती बधाई,
बंधुत्व ने विदुर का,
ऑंगन सजा दिया,
चन्दा गगन में निकला,
सिंदूर की बढा़ई,
सिंदूर की बढ़ाई,
परमाद के चितेरे,
अब ज्ञान का मुखौटा ,
आयेगा काम मेरे,
परिणाम की जगह पे,
तुमको पुकार लूंगा,
नीरस बना जो यौवन,
चेहरा बिगाड़ दूंगा,
ये कामना का पंछी,
जीने भी नही देता,
उल्लास भरा यौवन ,
पीने भी नहीं देता,
फिरआस्था की थाली,
वैसी सजी अनूठी,
होगी प्रणय पिरीती,
आशा की किरन फूठी।।
'भ्रमर' 07जुलाई 18. क्रमश:--g
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