ज्ञानी हैं महादानी
आठ प्रकार के दान होते हैं। अऩ्नदान, भूमिदान, कन्यादान, गोदान, गोरसदान, सुवर्ण दान, विद्यादान और आठवाँ है अभयदान। लेकिन भगवद्-प्रसाद दान सर्वोपरि दान है जो तीन प्रकार का होता है। उसमें जो क्रियाजन्य दान है – रूपया पैसा, सेवा…. वह देश, काल पात्र देखकर किया जाता है। दूसरा जो भक्तिजन्य दान है, उसमें पात्र-अपात्र कुछ नहीं, भगवान के नाते भक्तिदान करो, उसे शांति मिले, प्रीति मिले, भगवान की प्यास जगे। प्यास और तृप्ति, प्यास और तृप्ति… करते करते वह परम तृप्त अवस्ता को पहुँच जायेगा, यह भक्तिदान है। भक्तिदान में पात्रता के सोच-विचार की आवश्यकता नहीं रहती। सभी पात्र हैं, सभी भगवान के हैं, अल्लाह के हैं। तीसरा होता है ज्ञानदान। ज्ञान तीन प्रकार का है, इन्द्रियगत ज्ञान, बुद्धिगत ज्ञान और इन दोनों को प्रकाशित करने वाला वास्तविक ज्ञान। उस वास्तविक ज्ञान-ब्रह्मज्ञान का दान दिया जाता है। इन्द्रियाँ दिखाती हैं कुछ, जैसे आकाश कड़ाही जैसा दिखता है, मरूभूमि में पानी दिखता है। इन्द्रियगत ज्ञान भ्रामक है, सीमित भी है, आकर्षण भी पैदा कर देता है और हल्की बात इन्द्रियाँ तुरंत खींच लेती हैं। पान-मसाला एक बार खाया तो चस्का लग जायेगा लेकिन भगवान की तरफ एक बार चले तो हमेशा के लिए चलता रहेगा ऐसा कोई जरूरी नहीं है। इन्द्रियाँ विकारों की तरफ जल्दी खिसकती हैं और अच्छाई की तरफ तो सात दिन अभ्यास करो तब उस तरफ चलने की आदत पड़ती है। तो इन्द्रियगत ज्ञान, बुद्धिगत ज्ञान – ये दोनों जिस शुद्ध ज्ञान, आत्मज्ञान से प्रकाशित होते है, उस ज्ञान का दान सर्वोपरि है। उस ज्ञान का दान करने वाले को ऐसा भी नहीं लगता की मैं यह दान कर रहा हूँ और ये लोग हमसे दान ले रहे हैं। वे महादानी तो आत्मभाव से, आत्मदृष्टि से सबको देखते हैं।
आठ प्रकार के दानों में आखिरी दान है भगवद्भक्ति या ज्ञानदान, सत्संगदान। सत्संगदान में तीन विभाग हुए कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग।
कर्मयोग में तो पात्रता के अनुसार जैसे ड्राइवर है उसको ड्राइवर की सेवा देंगे। भक्ति योग में पात्र कुपात्र नहीं देखा जाता। भक्ति का, भगवद्भाव का ज्ञान तो सबको दिया जाता है। जो आज्ञापालन में तत्पर हैं उनको तो ज्ञानदान ऐसा पच जाता है, जैसे सूरज होते ही प्रकाश दिखे। ज्ञानदान में भी एक ऐसी पराकाष्ठा है गुरुकृपा की और वेद भगवान की आप जप करो, योग करो, तप करो सब अच्छा है लेकिन भक्ति मार्ग में ‘मैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं’- यह दृढ़ निष्ठा जप-अनुष्ठान व मालाओं से भी कई गुना ज्यादा फायदा करती है। जप-अनुष्ठान में यही निष्ठा रखें।
ऐसे ही ज्ञानमार्ग में है। ‘स्थूल शरीर से क्रिया होती है, यह जगत दिखता है और व्यवहार होता है। सूक्ष्म शरीर में सपने आते हैं, कारण शरीर में नींद आती है। ‘मैं’ इन सबको जानने वाला विभु, व्यापक, अबदल आत्मा हूँ, शाश्वत हूँ’ – ऐसा जो निश्चय कर लेता है, उसकी सभी साधनाओं की पराकाष्ठा जल्दी हो जाती है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2014, पृष्ठ संख्या 21, अंक 264
http://www.rishiprasad.org
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