(पुन: अवलोकनार्थ)
---:चिन्ता:---
दोहा:--
चिन्ता को नहिं दीजिये,
सहज कोई स्थान।
तन मन वह जर्जर करे ,
भेज देय शमशान।।
मुक्तक:--
1
किसी की आस मत देखो,
किसी का न्यास मत देखो,
जो देखो तो सहज होकर,
विकलता पास की देखो ।।
2
संत सरसता खडी़ ठिकाने,
मुझको एैसा लगी बताने,
आज 'भ्रमर' तो सबने देखा,
कल क्या होगा कोई न जाने।।
3
कल बोला सुन एै दीवाने,
मुझसे मिलना किसी बहाने,
हम तो सदा हुलासी मन के,
बिधि का लिखा कोई न जाने।।
4
यह सुन चिंता साथ हो गई,
अपने से परिवाद बो गई,
किया वरण प्रतिघात का उसने,
सौम्य सुधा उल्लास ले गई।।
5
क्या चिन्ता से प्यार ना होगा,
पुरुषारथ व्यवहार ना होगा,
इसी बिषय की हलचल मन में,
वर्तमान सन्सार ना होगा।।
6
अगले पल के दृष्य सामने,
ऑंसू लब को लगे थामने,
भय ने सुन्दर सपना भेदा,
दिनचर्या रस लगा झॉकने।।
7
तभी लगन में आशा आई,
गुण के संग वो प्रतिभा लाई,
तथ्य समझ मन लगा डोलने,
क्यूं क्षारित है करम कमाई।।
8
सबसे है प्रारब्ध अनोखा,
जिसको केवल प्रभु ने देखा,
संसारी बिष कौतुक उगले,
यम रखते नित लेखा जोखा।।
(अथ)
रचयिता प्रेषक :---
विजय नारायण अग्रवाल"भ्रमर"
रायबरेलवी 09 जुलाई 18
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