न चूल्हा न बांस न डेगची
क्या खाक पकेगी बीरबल की खिचड़ी
मिड डे मील... मिड डे मील... मिड डे मील...
कब से पढ़ रहे हैं आप ये खबर शायद आपको भी नहीं याद होगा. लेकिन इतना तो याद हो होगा कि साल में कई कई बार मीडिया में ये खबरें आती हैं.
गुणवत्ता, धांधली, दलाली, जातीय प्रभाव आदि आदि मंत्री, संतरी, जिलाधिकारी, बीएसए और हम आम जन कौन नही जानता कि मिड डे मील के नाम पर परोसे जाने वाले भोजन को लेकर कितना बड़ा खेल बच्चों के स्वास्थ्य से होता है. हां नहीं जानते तो सिर्फ वो लोग ही नहीं जानते जिनके बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं और जो थोड़ा बहुत जानते भी हैं वो पहले अपनी अन्य समस्याओं को देखें या उनके व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठाने की खोखट करें. इसी कमजोरी और मजबूरी का फायदा उठाकर उनका तबका ही उपेक्षितों का तबका बन रखा है व्यवस्था ने.
बातें बड़ी बड़ी हमारे रहनुमाओं के दावे बड़े बड़े लेकिन अख़बारी खबरों के अलावा कुछ न हो पाया. मेरे देखते देखते तीन सरकारें आयीं और चली गयीं चौथी सरकार में भी लगाम हाँथ में होने के बावजूद थम नहीं रही है. अक्षयपात्र को माया दीदी के जमाने से शुरू होकर अखिलेश जी का दौर गुज़रते हुए आज प्रदेश में योगी जी की सरकार आ गयी लेकिन उनके किचन का योग न बन पाया. बीरबल की खिचड़ी तो फिर भी ठीक थी पूरा बांस कभी न कभी तो जलता ही और आग डेगची तक पहुचती ही, पकती पकती न पकती गिरती डेगची लेकिन पकाने के लिए आग तो तैयार हो ही जाती. लेकिन यहां तो न चूल्हा न बांस न ही डेगची (बटुइया) दिखाई देती है.
स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर मौत के मुहाने तक पहुचाने वालों के लिए खान पान व्यवस्था में जरा भी गड़बड़ी पाये जाने पर सजाये मौत कानून बना दें. अक्ल के दुश्मनों की अक्ल ठिकाने पर आ जायेगी.
देखिए त्योहारों की तरह कब इस प्रकार खबरों को हम पढ़ते ही रहेंगे. निजात का इंतज़ार करते आये हैं और करेंगे. उम्मीदों को कौन मारेगा
Dharmendra KR Singh
📞7860501111
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