मेरे , दिवा स्वप्न की संगीनी,
मोहे अंग से अंग लगाने दे ।
हर बार विमुख मै जीता रहा ,
इस बार संग मर जाने दे ।
सांसो का ऐसा संगम हो,
प्रर्णयातुर दृश्य विहंगम हो ।
शब्द भी झंकृत करते हो,
दो प्राण एक राग करतें हो ।
मुझे प्रेम रस के झरने से ,
इक बार अमृत पिलाओ ना ।
मै तन्हा तन्हा जीता हूँ,
इक बार करीब आ जाओ ना।।
.....
.....मै नकुल, नागीन तेरी खोज में,
बिल बिल घूमता रहता हूँ ।
तुम एहसास में बस्ती हो ,
यह सबसे कहता रहता हूँ ।
....
*नकुल कुमार "आलोचक"*
*मोतिहारी पूर्वी चंपारण बिहार*
*8083686563*
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