---:चिंतन:--- ( सुधार)
तृष्णा लिये मूढ़ता धार।
प्रभू मैं कैसे करूँ सुधार।।
करम विमुख है ये तन अपना,
दोष दिखत है जैसे सपना,
फूट बैर की बोली बानी,
बदला जग का शिष्टाचार---प्रभू
किसे सुनाऊँ मंजुल बातें,
राग - द्वेश में उलझी रातें,
तुम तो बैठे नील गगन में,
यहॉं पे ठसका लोकाचार---प्रभू
भॉति भॉंति के फूल खिले हैं,
सबके अपने शिकवे गिले हैं,
डाली करती कॉंटे लेकर,
अपनी मरजी से व्यवहार--प्रभू
पूजा अर्चन मन नहिं लागे,
सत्कर्म में धन नहिं लागे,
तन भी भागे सेवा धर्म से,
ऐसे बदल गये संस्कार---प्रभू
तन भी शैया चढ़ के चलिहैं,
धरम करम बढ़ बढ़ के बोलिहै,
रिस्ता कौनौ साथ न जाई,
कपडा़ डोमौ लेई उतार---प्रभू
मद ने अपना जाल फैलाया,
फँसी बिचारी उसमें दाया,
ठाकुर बैठे मंदिर भीतर,
बाहर मधुशाला गुलजार---प्रभू
भाई ही भाई का भक्षक ,
दस्तक भी देता है रक्षक,
दीपक नीचे घना अँधेरा,
मंत्री देखत हैं दरबार---प्रभू
खेल-खेल में बचपन बीता,
बिषय भोग ने यौवन जीता,
देख बुढा़पा आई रुलाई,
जब काया भई लाचार--प्रभू
इक दिन काया मिट्टी हो जाई,
महल दुमहला यहीं रह जाई,
कैसे सम्हले 'भ्रमर' का जीवन
अब कैसे हो बेडा़ पार-----
तृष्णा लिये मूढ़ता धार।
प्रभू मैं कैसे करूँ सुधार।।
'भ्रमर' रायबरेली 15 जून 18
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