--:विषमता:---
छाई हुयी विषमता,
अज्ञान के किनारे।
दिखता नही सहारा,
निष्ठा किसे पुकारे।।
ममता की छॉव देखी,
मन बोल उठा मेरा,
कोई तो यहॉ अपना,
करता है आ बसेरा,
पूछूँ मैं बात उससे,
क्यूँ अन्धकार फैला,
क्या आस्था डिगी औ,
बोधत्व है कसैला,
या कामना मथानी,
निर्दय का रूप धारे--दिखता
लेकिन वहॉ से उत्तर,
कोई मिला न मन को
पर चेतना की खातिर,
बल तौल रहा गुण को
कानों में गूंज आई,
तू मौन रहना सीखे
हरपल बिषय को लेकर,
न वासना पे खीजे,
यौवन की विभव उषमा,
अशलीलता संवांरे---दिखता
पर इस चरन पे मेरा,
स्नेह घट गया,
देखी जो उसकी सूरत,
संदेह छट गया,
उसने हृदय को मोहा ,
दे कान्ति के दिये,
संकीर्णता नही थी,
सुख शान्ति के लिये,
अवधारणा ही मेरी,
उसको नही बिचारे,---दिखता
जब साधना ने समझी,
एैसी मनो दशा,
तो नम्र हो ऋणी को,
उद् घोष से कसा,
दरपन में बसा कोई ,
एक रूप होता है,
सम्मान दे के देखो ,
अनुरूप होता है,
किस योजना का थैला ,
पास है तुम्हारे----दिखता
मैं तो अवाकअपने,
दिल से हो गया,
फैसला भी उसकी,
महफिल में हो गया,
दिगभ्रान्तिता 'भ्रमर',
क्या संदेश लायगी,
जीवन में मिली गरिमा,
बस छूट जायगी,
अंतिम समय में कोई,
क्या धर्मिता सुधारे----
दिनरात चाह प्रेषित ,
करते रहे सितारे----दिखता
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