---:दृष्टि:---
पंछी उड़ चल नील गगन में,
व्यवधानों का घेरा है।
डिम्ब लिये शैतान नबेला,
कहता मेरा - मेरा है।।
1
तन्मयता की चादर ओढे़,
दिव्य किरन मुस्काई है,
जलन स्वार्थ परमार्थ सम्हाले,
वसुधा की अँगनाई है,
वातसल्य अभिनय में ढूबा,
चहुँदिश खड़ा लुटेरा है--पंछी--
2
हरियाली की कुसुम कोशिका,
मौसम से घबराई है,
रश्मि रसायन पूर माधुरी,
समझ रही चतुराई है,
लामबन्द सिन्दूरी किरणें,
सॉवल केश घनेरा है--पंछी--
3
लस्त त्रस्त नदियों की धारा,
दूषित दुखद कुपोषण से,
नेह लिये शबनम की बूँदें,
जल विहीन अन्वेषण से,
हवा बिषैली क्रन्दन करती,
बंधन लिये सपेरा है--पंछी--
4
रुख सूख ललिमाऔ गरिमा,
पतझड़ की अंगडा़ई से,
जीत सका न कोई क्षिति पर,
जहरीली रुसवाई से,
'भ्रमर'लिये अभिलाषा अग्नी,
ढूँढो नया बसेरा है--पंछी--
डिम्ब लिये शैतान नबेला,
कहता मेरा - मेरा है।।
रचयिता :--
विजय नारायण अग्रवाल 'भ्रमर'
Rbl 13 जुलाई 2018
Comments